Friday, September 17, 2010


पुजने से  पत्थर  कभी  खुदा  नहीं  बनते ...
वफाओं  के  सिले  लाजिम -ऐ-वफ़ा  नहीं बनते ..
वोह  मुझ  से  मेरी  मोहब्बत  की  गहरायी  पुछता है ..
वोह इतने नादान है ? इतना भी नहीं  समझते  की ........
चश्मे कितने   भी  गहरे क्यों न  हों , दरया फिर भी  नहीं  होते ..


हर  किसी  के  जलने  का , अपना एक  अंदाज़  होता  है ..
परवाने  जितना  भी  जलें , मगर कभी  दिया  नहीं  होते ..
तुम  जब  भी  चलना , अपने  पैरों  पर  ही  चलना मेरे दोस्त ..
आज  कल  के  लौग़ , किसी  का बे मतलब  , आसरा  नहीं  होते ...
वोह  मुझे  काँटा  समझ  के , गिरा  गया  इन  राहों  में  कातिल,,
उसे  क्या  खबर  की ,  फूल  कभी  काँटों  से  जुदा  नहीं  होते .......


No comments:

Post a Comment