Sunday, September 29, 2019

ADABI SANGAM ...[ 479 } ......VAZOOD -- * वजूद * EXISTENCE* AT FLAMES floral park ,Saurday......................................... [ september 28, 2019 " ].......................................... 31


                                 * वजूद *           
                                                                      28 -09 -2019 
 


    न  तू जमीन के लिए है न आस्मां के लिए , तेरा वज़ूद है......तेरा वज़ूद है  सिर्फ दास्ताँ के लिए। 

छूं न सकूँ मै आसमां तो कोई गम नहीं , मेरी दास्ताँ छू जाए दोस्तों के दिलों को , यह भी तो आस्मां से कम नहीं ?


आज इंसान अपने वज़ूद की तलाश में भटक गया है बिखर सा गया है "  इंसान इस दुनिया में आता जरूर है अपने अपने मकसद को पूरा करने की चाह में लेकिन सब यहीं रह जाता है एक अधूरे सफर की सिर्फ एक दास्तान बन कर , एक नसीहत बनकर , लोग अक्सर उसके जाने के बाद उसे याद करते है " यार वो क्या इंसान था ? , क्या स्वभाव था उसका , उसकी बातों में कितनी जिन्दा दिल्ली झलकती थी , यह बातें करने वाले अक्सर उसके बहुत ही नज़दीकी मित्र रिश्ते दार ही होते है जिन्होंने उसके वज़ूद को उसके जीते जी कभी स्वीकार ही नहीं किया , लगे रहे उसकी हर राह में पत्थर बनकर उसे रास्ते से हटाने में। 

अनुभव कहता है "खामोशियाँ " ही बेहतर हैं इस जमाने में , शब्दों से लोग अक्सर रूठ जाते हैं , जिंदगी गुजर जाती है यहाँ  सब को खुश करने के चकर  में , अपने वज़ूद को ही मिटाना पड़ता है दूसरो की ख़ुशी के लिए। 

जो खुश  हुए भी तो वो अपने सगे न थे , और जो अपने सगे थे वो कभी खुश हुए ही नहीं  ,दोस्तों को भी क्या कहें ? जो जेब के वजन के साथ अक्सर बदल जाएँ ?

 कितना भी समेटा फिर भी हाथों से फिसल ही गया , यह जालिम वक्त ही तो था जो बिन रुके चलता ही गया , इसके आगे मेरे वज़ूद की क्या विसात थी जो इसे थाम कर इसके रुसवा होने की वजह भी पूछता  ?  


वज़ूद तो उस मकान की छत का भी था , जिसे गुमान था सबकी  पनाह गाह होने का ,

एक मंजिल और क्या बनी उसके ऊपर , बेदम सी। ....... कदमो में आ गिरी ,  और अब छत से  फर्श बन गई ,हररोज  जिसपे पड़ने वाले हर कदम से उसे रौंदा जाता है , इसलिए कभी गरूर न करना अपने वज़ूद का अर्श से फर्श बनने में ज्यादा वक्त नहीं लगता। 

वज़ूद तो उस बादशाये आलम का भी था , जिसकी धाक एक दो में नहीं करोडो में थी। 

गिनती भी उसकी दुनिया के शूरवीरों में थी , कांप जाता था वोह जिसे वह देख लेता 
कुछ ऐसी रफ्तार थी उसकी जिंदगी की , कि जैसे वक्त उसके पाश में थम सा गया हो ,


मौत से टकरा गया पगला एक दिन इसी आवेश में , दफन हो गया ६ फ़ीट की कब्र में ,

जबकि जमीन उसके नाम कई एकड़ों में थी , दस्तावेज भी मुकमिल उसके नाम थे ,
सामने दिख रही उसकी आखिरी मंजिल थी ,और पीछे पीछे  मिटता उसका  वजूद ,

क्या करते रुक कर हम भी उसके लिए यारो , रुकते तो हमारा अपना  सफर थम जाता ,

चलते तो  पीछे  बहुत कुछ  छूट जाता , इसी उधेड़ बन में वक्त का पता ही न चला , सिर्फ इतना ही एहसास बाकी रहा जेहन में कि "

जब मेरा वक्त था , तब मेरे पास वक्त नहीं था { जरा गौरफरमाइये मेरी इस मजबूरी को  }

जब मेरा वक्त  था , तब मेरे पास वक्त नहीं था 
और आज मेरे पास वक्त ही वक्त है ,
 पर ,आज मेरा वक्त ही नहीं है ,
 यही दुनिया का दस्तूर है शायद , यहां झूट कबूल होता है 
और सच्चाई का वज़ूद नकार दिया जाता है 

उस इंसान का वज़ूद मरने के बाद भी जिन्दा रहता है जिसने अपने वक्त में सबको वक्त दिया हो और सब के दुःख सुख का भागीदार रहा हो , इसलिए संबंधों को निभाने के लिए समय जरूर निकालिये वरना जब आपके पास समय होगा तब तक शायद आपके सम्बन्ध ही न बचे ?, 


कुछ कह-सुन  गए कुछ सह गए , कुछ कहते कहते रह गए ,

 मैं सहीं तुम गलत के खेल में न जाने कितने रिश्ते ढह गए।

जलने और जलाने का बस इतना ही फलसफा है साहब ,

वज़ूद हमारा भी उनेह खलने लगा है , पुरजोर साजिश हमे जलाने की फ़िक्र हैं उनको ,
 फ़िक्रमंद होते हैं तो वह खुद भी जलते हैं , क्या शमा नहीं जलती रही परवाना जल जाने के बाद ?
कौन रोता है किसी और की खातिर मेरे दोस्त , 
उनको भी अपनी ही किसी बात पे रोना आया होगा ,

शाम ढलते ही हम भी आ जाते है अपने असली वज़ूद में ,

सूरज डूबा समुन्दर में , और हम डूबे  ग्लास में , 
हल्के में ना लेना इसके रँगे  शबाब को ,दूध से कहीं ज्यादा कद्रदान हैं इसके शबाब के। 

ऐसी ही है जिंदगी की दास्तान दोस्तों , रस्सी जैसी बल खाती , अकड़ में अपने तनी हुई , मन की लिखूं तो शब्द रूठ जाते हैं , और सच लिखूं तो अपने ही रूठ जाते हैं , जिंदगी को समझना बहुत मुश्किल है जनाब 

कोई सपनो की खातिर अपनों से दूर चला गया ,कोई अपनों की खातिर सपनो से दूर , 

पत्थर भी तब तक सलामत  है जब तक वो पर्वत से जुड़ा है , पत्ता भी तब तक सलामत है जब तक वोह पेड़ से जुड़ा है , इंसान भी तभी तक सलामत रहता है जब तक वोह परिवार से जुड़ा है , जैसे ही इंसान परिवार से जुदा होता है उसका वज़ूद भी बिखर जाता है। 


अब आप से क्या छुपाएं अपने वज़ूद को जिसे शादी होते ही खतरा होने लगा , बात उन दिनों की जब हम नए नए दूल्हा बने थे , पत्नी जी पहली बार रसोई में घुसी और खाना बनाने लगी , अचानक मुझे अहसास हुआ की मेरे रोटी बनाने वाले चकले की बिलकुल आवाज़ ही नहीं आ रही ? यह कैसे हो सकता है मैं बीवी से ज्यादा तो उस चकले को जानता था जिसकी तीनो टांगो में एक छोटी थी गोया रोटी बेलने से वह काफी आवाज करता था , मैं कोतुहल वश किचन में घुसा तो देखा पत्नी जी उसी चकले पर आराम से रोटी बेले जा रही है और चकले की तीनो टाँगे अलग कर दी गई थी ,मैंने पुछा यह क्या किया तुमने ? कुछ नहीं यह ज्यादा खट खट कर रहा था इसलिए मैंने इसकी तीनो टाँगे ही तोड़ दी , मेरा तो यही स्टाइल हैं किच किच बर्दाश नहीं होती अपने से। 


मैं कौन सी बात करने आया था भूल ही गया , चुप चाप वहां से खिसक लिया , मुझे अपनी टाँगे थोड़ा ही तुड़वानी थी। यही दास्तान है मेरे भी वज़ूद की खतरों को पहले ही भांप लेता हूँ और अपनी बहादुरी के किस्से लोगों को सुनाता हूँ।  


जिंदगी का एक सिरा है ख्वाइशों में डूबा ,  दुसरे पे ख़तराये       ''' वज़ूद" 



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खाई की गहराई देख पहाड़ धीरे से हंसा

अपनी ही ऊंचाई देख पहाड़ धीरे से तना

खाई ने मुस्कुराते हुए पहाड़ से कहा—

अकड़ मत, चुपचाप खड़ा रह.....

मेरी गहराई से तेरी उंचाई बनी है

मेरी मिट्टी से तेरी उंचाई बढ़ी है.....!

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एक साथ चार कंधे का सहारा देख , एक मुर्दे को ख्याल आया ,

एक ही काफी था , अगर जीते जी मिल गया होता
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आज सजा देने वाले हमसे रज़ा पूछते हैं ,

जब जी रहे थे तो जीने की वजह पूछते थे

खुद ही दिया है जहर मार देने को हमको

कितना हुआ असर , मासूमियत से पूछते हैं