वोह दिन भी क्या थे हम जब , अपने देश में रहते थे ,
खौफ न था सार्स और करोना का
मिटटियों में पल कर भी , हम पहलवान कहलवाया करते थे
वही तो थे हकीकत में जिंदगी के दिन
जब ,हम अपने देश में रहते थे.
दादी की पहली रोटी , जो गाय के नाम की होती ,
और आंतिम रोटी उनकी ,खाता था गली का मोती ,
नंदू भिकारी भी ठीक समय पर ,दरवाजे पर आ जाता ,
अपने हिस्से का खाना पीना ...वह भी तो पा जाता था
आँगन में हमारे , देहलीज़ में एक बकरी पाली जाती थी ,
सदस्य थी मेरे परिवार की , जो खाते हम वह भी खा जाती थी
अपने दूध के अमृत से घर के बूढ़े
चीटियों के बिल के अंदर, शक्कर डाली जाती थी।
हम बच्चे। ........ हम बच्चे
यह सब करने के आदेश में रहते थे ,
दिन वोह भी क्या थे जब हम ऐसे देश में रहते थे
अपनी मिटटी की खुशबू के परिवेश में रहते थे ,
दिन वोह भी क्या थे जब हम ऐसे देश में रहते थे
वह घर का कच्चा आँगन , और उसपे बरसता सावन ,
हम भूल चुके हैं जबसे मिल गए आधुनिक साधन ,
इक मामूली सा बिछोना और छत्त पर जा कर सोना
किसी परी की कोई कहानी , किसी जिन का जादू टोना ,
दादी की कहानी वाले ,,किरदारों में खो जाना
और जाने कब चुपके से सुनते सुनते सो जाना ,
अब जाने आगे क्या होगा , पशोपेश में रहते थे
वोह दिन भी क्या थे जब हम ऐसे देश में रहते थे ,
अपनी मिटटी की खुशबू के परिवेश में रहते थे
दिन क्या थे जब हम मिलकर ऐसे देश में रहते थे ,
इक कागा कांव कांव कर के तो चला जाता था
मेहमान कोई आएगा यह बात बता जाता था ,
गाँव के सभी दरवाजे रातों को खुले रहते थे ,
गाँव के सब दरवाजे रातों को खुला रहते थे
टूटी साइकिल थी लेकिन हम सब से जुड़े रहते थे ,
यह सच है हम लोगों के उन दिनों में घर कच्चे थे
घर तो कच्चे थे लेकिन रिश्ते सारे सच्चे थे ,
संत और साधू संसद में नहीं ऋषिकेश में रहते थे ,
वह दिन भी क्या थे जब हम अपने देश में रहते थे
अपनी मिटटी की खुशबू के परिवेश में रहते थे