Tuesday, December 11, 2012

कर्म ,संस्कार और व्यवहार ----------कबीर के विचार

कबीर के विचार 


कर्म ,संस्कार और व्यवहार 


प्रेरक कथा :  एक देहाती कहावत है “बाढे पूत पिताके धरमे और खेती उपजे अपने करमे” अर्थात माता-पिताद्वारा किया हुआ धर्माचरणका प्रभाव संततिपर अवश्य ही पडता है और खेतीके लिए पुरुषार्थ आवश्यक है |

आजकल माता-पिता स्वयं साधना नहीं करते और न ही धर्माचरण करते हैं , उसके विपरीत पैशाचिक प्रवृत्तिवाले पाश्चात्य संस्कृतिका अंधानुकरण करते हैं और तत्पश्चात अपने संतानके दिशाहीन होनेपर दुखी होते हैं | वस्तुतः बच्चे 
अनुकरण प्रिय होते हैं और अपने घरके सदस्याओंके संस्कारको सहज ही आत्मसात कर लेते हैं |

 साधना इतनी सूक्ष्म होती है कि वह हमारे कुलके संस्कारमें अतर्भूत हो जाती है | वैदिक संस्कृतिके अलावा इस संसारकी कोई भी संस्कृति सत्त्व गुण आधारित नहीं है | अतः अपने बच्चोंके अंदर वैदिक संस्कृतिके संसकारका बीजरोपण करना प्रत्येक माता-पिताका मूल धर्म है | माता पिताकी साधनाका तेजस्विता संतानमें दिखती ही है इस संबंधमें एक छोटी सी कथा बताती हूं |

एक बार एक पंडितने अनेक शास्त्रार्थ कर विद्वानोंको परास्त कर अनेक प्रशस्ति पत्र एकत्रित कर रखे थे | उसे अपने ज्ञानका अभिमान हो गया था | 

एक दिन किसीने उनसे कहा “ यदि संत कबीरको शास्त्रार्थमें पराजित कर सको तो माने “!! अहंकारने पंडितके विवेकको ऐसे ही नष्ट कर दिया था अतः वे अपने सर्व प्रशस्ति पत्र और ग्रंथको एकत्रित कर, एक बैलगाडीमें लाद, संत कबीरसे शास्त्रार्थ करने निकल पडे |

 पूछते-पूछते संत कबीरके गांव पहुंचे | संत कबीरकी दोनों संतान उच्च कोटिके साधक थे | पंडित संत कबीरके घर पहुंचे और उनकी पुत्रीसे पूछा “क्या कबीर यहीं रहता है मुझे उनसे शास्त्रार्थ करना है | 

उनकी पुत्रीने बैलगाडीमें लादे ग्रन्थोंको देख, सब समझ गयी और कहने लगी “ आपसे चूक हो गयी वे यहां नहीं रहते, यहांसे कुछ दूर पश्चिमकी ओर एक गांव है वहां एक टीला है उसीपर उनका घर है” | 

पंडितने उसकी बात मन बैलगाडी पश्चिमकी ओर ले ली और अत्यधिक भटकनेके पश्चात पुनः संत कबीरके घर पहुंच गए, पुनः उनकी भेंट उनकी पुत्रीसे हुई | वे भडक उठे, कहने लगे, “ कबीरका घर यही हैं और तूने मुझे दिशाहीन कर इतना भटकनेपर विवश किया, तुम्हें लाज आना चाहिए, जाओ तुरंत कबीरको बुलाओ, 

(अहंकारके आवेशमें उन्हें एक बुनकरको संत कहना स्वीकार्य नहीं था ) | कबीरदासकी पुत्री बोलीं

“ऊंचे शिखर पर घर कबीर का, जहां सिलहिली गैब ( FISLAN) | पाओं न टीके पपील ( सूक्ष्म से सूक्ष्म जीव चींटी भी नहीं टिक सकता ) का, पण्डित लादे बैल ||

अर्थात “हे पंडित, संत कबीर जिस ऊंचाईपर हैं (अर्थात अध्यात्मके उस गहराईमें पहुंच चुके है जहां कोई विरला ही पहुंचता है ) वहां इतनी फिसलन है कि चीटीं जैसे सूक्ष्म जीवका पांव फिसल सकता है, तो आप इस बैलगाड़ीमें लादे ग्रन्थोंके समान रूपी अहंकार के  भार लेकर उनसे कैसे मिल सकते हैं (अहंकारी संतोंकों नहीं पहचान सकता ) ?

 उसकी यह बात सुन पंडित लज्जित हो गया और उससे क्षमा मांगने लगा और उससे उसका परिचय पूछा | जब उसने अपना परिचय बताया तो उसने कहा ,” जिसकी पुत्री इतनी तेजस्वी है, वह पिता कैसा होगा , मैं आपके दर्शन कर धन्य होगया  कृपया संत कबीरके दर्शन कैसे हो सकते हैं यह बताएं” !
पहले अपने हृदय को शुद्ध कीजिये, अपने अभिमान को घर छोड़ कर  तब  कुछ समय उपरान्त फिर आइये देखूँगी गर पिताजी घर पे हुए तो मिलवाऊँगी