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Sunday, May 7, 2023

ADABI SANGAM--- MEET # 520 बहार --- बसंत ---नज़र --- पलकें ---

बहार --- बसंत ---नज़र --- पलकें 

Bahar -- spring ---Nazar -- palken 






रोज रोज ताकता हूँ इन ,आती जाती बहारों को , कर कुछ नहीं पाता 
कहाँ रूकती है किसी के रोके , यह बहारें कभी किसी के जीवन में ?

किस बहार की बात करूँ ? बसंत की करूँ या ,बरसात की
पतझड़ या आषाढ़ की ?या करूआज कल रिश्तों में गिरावट की त्रासदी की ?

चुभ जाती है हमें ,किसी की बातें कभी-कभी...
चाहे मौसम कितने भी रंगीन खुशगवार हो ---

हैरान हूँ परेशान हूँ ,यह सोच सोच कर ,उदास भी 
के आज   इस बसंत में , क्या क्या बयान करूँ?


लहज़े मार जाते हैं!लोगों के कभी यहाँ 
ये जिंदगी है साहेब, बहार से पहले,

खिज़ाएं  आ बसती है , 
यहाँ
आप बहारों  की बात करते हो ?

और गैरों से ज्यादा... अक्सर 
अपनों की जुबान ,डस जाती  है यहाँ



✏अगर रास्ता खूबसूरत है तो, सबको लुभाएगा ही 
जरा पता कीजिये वहां कौन सी बहार बह रही है ?
किस मंजिल की तरफ जाता है यह हसीं रास्ता !
कहाँ ले जाएगा यह हमें ? कोई खतरा तो नहीं वहां ?
वरना बहारों की तलाश में देखे हुए सपने पल में बिखर जाते है ,
डगमगाते कदमो से गलत रास्तों पे चलते हुए

हम ने भी जवाब दिया दोस्त 
अगर मंजिल का पता मालुम हो तो
फिर रास्ते की परवाह !!क्या करना
मेहनत का फल और समस्या का हल
नजरें चौकस रखिये ,हमें वहीँ मिलेगा

बहारो का आना जाना तो ,नियम है प्रकृति का अगर ,
इंसानी जिंदगी में हमेशा बहार रहे ,मुमकिन नहीं मगर

रिश्तों और बहारों का भी एक रिश्ता होता है 

रिश्तों"की"कद्र"करनी है तो,
"वक्त"रहते"कर"लिजिए...!👌 मिलते रहिये पोषित  करते 
 रहिये 
क्योंकि.... 🤞
जैसे "बाद"में"सुखे पेड"को कितना
"पानी"देकर"भी हरियाली नहीं लाई जा सकती
वैसे ही सुख गए रिश्तों से भी बहारों की "
उम्मीद"करना"बेकार"होता है ..!! 👍

खूब पढ़ाई लिखाई के बाद थी एक उम्मीद ,
खूब कमाई करेंगे , समाज में एक रुतबा होगा
सब अरमान पूरे करेंगे
अब जिंदगी भी खुशबाहार होगी , लेकिन कुदरत हमारे हिसाब से नहीं चलती

जब अक्ल आई तो शादी हो गई
मोहब्बत की खाने खेलने की उम्र थी तो बच्चे पालने पड़े
कमाई की ,और दौलत इकट्ठी की , सोचा बुढ़ापे में आराम करेंगे
औलाद के रिश्ते निभाने का दबाव बढ़ गया ,आराम तो क्या मिलता
बीमार अलग रहने लगे
जिंदगी के उतार चढाव , ख़ुशी गम , मिलन विछोह ,जब "बहारे "समझ आने लगी तो ,
मासूम जिंदगी ही इसी उधेड़ बन में निकल गई

कैसे हर मौसम, हर बहार, हमारे जीवन को छुए बिना , कब निकल गई पता ही नहीं चला






"मेरी व्यथा को समझते हुए "

पतझड में निर्वस्त्र खड़े पेड़ ने पुछा , क्या मायूसी है मेरे दोस्त ?
क्या तुम्हारे जीवन में खुशियां नहीं रही ? कोई खो गया है क्या तुम्हारा ?
मुझे देखो ,मेरा तो पूरा परिवार शरद ऋतू की भेंट चढ़ गया , कोई भी नहीं है मेरे साथ अब तो ,
मेरे पत्तों ने मेरा साथ छोड़ा , फल फूलों ने भी दामन झटका मेरा


मेरा चमन उजड़ा तो लोगों की निगाह भी बदली ,
जो लोग मेरी छाया में ,मेरे फल फूलों से अपना सकूं पाते थे

आज ललचाई नजर से मेरी सुखी काया को देखने लगे हैं 
कुछ मेरी अस्थिओं से फर्नीचर और कुछ मुझे जलाने के ख्याल पकाने लगे हैं 

यह तो भला हो भद्र इंसानो का ,जो कुछ प्रायवरण कानूनी नियम बदल डाले , तो मेरी जान बच गई ,वह मुझे छु भी नहीं पाए, आज मैं  आपके सामने खड़ा हूँ 


मेरी बहार आने जाने की और क्या क्या व्यथा सुनोगे बाबू ?
"बिना"फल वाले"सूखे"पेड़ पर, मैं सोचता हूँ
कोई"पत्थर"क्यों नहीं फेंकता. ,
आपने सोचा कभी?
जरा इंसान की खुदगर्जी तो देखो
फल लगते ही मेरी हर तरह से खुशामद करने लगते है , 
कभी कभी बड़े जोर से पत्थर भी मारते हैं  फल तोड़ने के लिए 
,फल खाते हुए तारीफ भी करते है तो फल की ,
मेरी जिंदगी की  , मेरी जीवन की कश्मकश की नहीं

 अब मुझे भी ब्रह्म ज्ञान हो गया है 
मेरी नजरों में क्या बहार और क्या पतझड़ ,
हर हाल में मुझे तो सताया ही गया है,
कभी मेरे फलों के लिए ,कभी मेरी लकड़ी के लिए 

आप भी व्यथित न हो आपकी जिंदगी भी महकेगी ,
फिर से इसी तरह जैसे मेरी 
कभी आपकी अपनी मेहनत से ,
कभी आपकी अपनी औलाद की सौबत में  ,

फिर भी मैं प्रकृति का शुक्रगुजार हूँ ,
फिर से ऋतू बदली है , नया चोला मिलेगा

फिर से मेरा परिवार बनेगा , मैं फिर से गुलजार हो जाऊंगा ,
फिर से सभी बहार के लालची इंसान लौट आएंगे मेरे पास
मुझे विश्वास है सबके जीवन में ऐसे ही बहारें लौट के आती होंगी
और ऐसे ही मतलबी इंसानो का झुरमुट लगता होगा उनके द्वार पे 


मैंने भी मुस्करा कर कहा कह तो तुम भी ठीक रहे हो 
"शख़्सियत"अच्छी होगी"तभी"तो लोग खिंचे चले  आएंगे 
तभी तो लोग उस में"बुराइयाँ"खोजेंगे, , पत्थर मारेंगे 
किसी की जीवन की बहारें, हर किसी को थोड़ा ही सुहाती है ?
अच्छे लगे लोगों  को तो लोग आन मिले 
वरना..🤞 बुरे लोगों की तरफ़ देखता ही कौन है.!!!


वक्त अच्छा ,सबका आता जरूर है , बस कम्भख्त वक़्त पे नहीं आता
पल पल तरसे थे, हम जिस "पल "के लिए
वो पल भी आया तो, सिर्फ कुछ पल के लिए
सोचा उस पल के कदमो को रोक लू , अपने हर पल के लिए
पर वो पल भी मजबूर था  ,रुक न सका मेरे एक पल के लिए






थकन कैसी घूटन कैसी ,
चल तू अपनी धून में दीवाने
खिला ले फूल काटों में सज़ा ले ,अपने वीराने

हवाये आग भड़काये फजायें जहर बरसाये

अंधेरे क्या उजाले क्या ना ये अपने ना वो अपने
तेरे काम आयेंगे प्यारे तेरे अरमां तेरे सपनें

जमाना तुझ से हो बरहम न आये राहभर मौसम
बहारें फिर भी आती हैं बहारें फिर भी आयेंगी

बदल जाए अगर माली चमन होता नहीं खाली


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अरे यारों कब सीनियर सिटिजन हो गये, पता ही नहीं चला।

कैसे कटा 18 से 75 तक का यह सफ़र, पता ही नहीं चला ।

क्या पाया, क्या खोया, क्यों खोया, पता ही नहीं चला !

बीता बचपन, गई जवानी, कब आया बुढ़ापा, पता ही नहीं चला ।

कल बेटे थे, कब ससुर हो गये, पता ही नहीं चला !

कब पापा से नानु, दादू बन गये, पता ही नहीं चला । 

कोई कहता सठिया गये, कोई कहता छा गये भापे क्या सच है, पता ही नहीं चला !

पहले माँ बाप की चली, फिर बीवी की चली, अपनी कब चली, पता ही नहीं चला !

बीवी कहती अब तो समझ जाओ, पर क्या समझूँ, क्या न समझूँ, न जाने क्यों, पता ही नहीं चला !
        
दिल कहता जवान हूँ मैं, उम्र कहती नादान हूँ मैं, इस चक्कर में कब घुटनें घिस गये, पता ही नहीं चला !

झड़ गये बाल, लटक गये गाल, लग गया चश्मा, कब बदलीं यह सूरत, पता ही नहीं चला !

समय बदला, मैं बदला, बदल गये सब रिश्ते बदल गये ,मेरे यार भी, कितने छूट गये, कितने रह गये यार, पता ही नहीं चला !

कल तक अठखेलियाँ करते थे यारों के साथ, हंसा खेलते थे परिवार के साथ , कब वो भी और हम भी कब सीनियर सिटिज़न हो गये, पता ही नहीं चला !

अभी तो जीना सीखा था और जाने का वक्त आ गया अभी तक जिंदगी थोड़ी समझ आई, और नासमझी का पता ही नहीं चला !

न दफ़्तर, ना दुकान फ़ैक्ट्री की चिंता न कोई बाॅस, ना कोई लेबर का झंझट ,न काम का कोई बोझ, कब हुए आज़ाद पता ही नहीं चला !

आदर सम्मान, प्रेम और प्यार की वो वाह वाह करती, कब आई और बीत गयी ज़िन्दगी, पता ही नहीं चला । 

बहु, जमाईं, नाते, पोते, ख़ुशियाँ आई, कब मुस्कुराई उदास ज़िन्दगी, पता ही नहीं चला ।

 जी भर के जी ले प्यारे फिर न कहना मुझे पता ही नहीं चला।