अदबी संगम।
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-खिज़ाएं कितनी भी घिर जाएँ -------
-------बदल जाए अगर माली -- चमन होता नहीं खाली
-----------" बहारें "फिर भी आती है ----------
--- बहारें फिर भी आएँगी ----
जब इंसान हार जाता है ,अपने मुकदर से
डूब कर टूट जाता है ,ग़मों के समुन्द्र में
गमो की लाश से ,जब वोह बाहर आता है ,
थोड़ा सकून से मुस्कराता है याद कर वो तूफानी जवारें ,
समझ लो लौट आई हैं , जिंदगी में उसकी बहारें
बड़े फक्कर से किस्से सुनाता है ,
खिज़ाएं छा गई हैं ,तो छाने दो ,
जिंदगी नासाज हो गई है तो होने दो ,
न कोई साथी रहा है न ही कोई
, हमकदम तुम्हारा ?।
फिर है किसका गम ? सोचो
जाने वाले लौट कर आते नहीं , न ही गुजरा वक्त।
वक्त लौटे या न लौटे , हिम्मत रखोगे तो
"बहारें"लौट कर जरूर आती है
कितने ही रुसवा हुए थे खुदा से,
और खुद से भी हम ?हासिल कुछ न हुआ
जब हमें हमारे अपने,हमारे सामने ही
हमारी दुनिया वीरान कर छोड़ गए
फिर भी हम जिन्दा रहे ,उमीदे भी जिन्दा रही?
सुलगती रही एक आग हमारे भीतर ,
क्या सोच कर?
दिल हर वक्त हर पल बोलता था , मायूस न हो
वह वक्त भी न रहा , वक्त तो यह भी बदलेगा ,
जिसको जाना है वह तो जाएगा ही ,
मगर आती जाती बहारों को कौन रोकेगा ?
बहारें हमेशा आती रहीं हैं ,बहारें फिर भी आएँगी,
जिंदगी के दुःख सुख ऐसे ही मौसम हैं
जो बदलते ही रहते हैं ,
गर दुःख पतझड़ हैं तो ,सुख ,बसंत बहारें हैं
बदलाव का दूसरा नाम ही हैं।बहारें
विश्वास न हो तो आँख खोल कर देख लो।
अब बहारें कल से कुछ अलग सी दिखने लगी है ,
पक्षियों को पिंजरों में कैद करने वाले
खुद सिमट गए है चारदीवारी में
रोज मिलकर मस्ती करने वाले ,
आज बेचैन हैं परिंदों की आजादी पर
तपती गर्मी में झुलसते हैं इंसान और परिंदे भी ,
इंसान बेबस होकर पड गया है बिस्तर पर ,
अपनी बहारों की तलाश और इंतज़ार में
पक्षिओं के झुण्ड स्वछंद उड़ रहे बेखौफ होकर
कुछ वक्त पहले बर्फों में दब जो बिखर कर सूख गए थे
गर्मी में दमकने लगी हैं ,उन्हीं हरे हरे पेड़ों की बहारें ,
जंगल में मंगल होने लगा है , पेड़ो के ठूठ हरयाली में सजने लगे हैं
पक्षी भी अपने घरोंदे सजाने लगे है
बिजली की चमक , बादलों की गरज ,
याद दिला रही है इंसान को ,कि जो
बहारें आने वाली थी वोह बहारें अब आ चुकी हैं
जमीन पे बिछ चूका है , सब्ज हरे घास का कालीन ,
जंगलों में भी कुदरत ने बिछा दिए है सब्ज हरे बिछोने ,
हर जानवर और परिंदे के जीवन में बहार लौट आई है
हवाओं में भी घुली है बरसातों की बहारें ,
आई हैं बूँदें जमीन पे उत्तर कर देखने
खेतो में लहलहाती फसलों की बहारें
कोयल की कूक बता रही सब को जगा जगा के
मोर भी नाच रहा देख देख के कुदरत की बहारें
पि पि करके पपीहा भी बिगुल बजा रहा।
सब खुश है क्या मनुष्य क्या पखेरू
देख कुदरत की नई नई बहारें ,
बड़ा शोर है उस इंसान के घर में ,
लोग नाचे जा रहे बेतहाशा हैं
जश्न ही होगा कोई, शाय्यद
शादी विवाह का कोई मौका होगा ,
किसी की खुश्क वीरान जिंदगी में
किसी नई बहार का तौफा होगा ,
सजे हैं गुलाबी फूलों से वह आँगन भी ,
जो कभी वीरान थे
न आती गर उनकी किस्मत में बहारे ,
वीरान पड़े आंगन बन चुके शमशान थे
जिंदगी में जिनके है बहारें , वह ख़ुशी में नाच नाच कर
काटें है राते सारी
गम में जो होते हैं , उनकी राते रोती है ,होती है नींद पे भारी
दुःख में उनके सीने फड़कते है
आहें निकलती है आंसू भी टपकते है
ऐसे में जब --------
किसी के घर संसार में तशरीफ़ लाती हैं बहारें ,
जिंदगी के रंग ढंग बदलने लगते है
हुस्न बहक जाता है ,नए नए जलवे दिखाती है बहारें
परिवारों में किस किस तरह के गुल भी खिलाती हैं यही बहारें
हुस्न पे जो छाईं है तुम्हारे, इतनी हसीं कयामत
यह सब के नसीब में कहाँ ,
" उन्होंने मायूस होकर कहा"
गर्दिशों में लगता है आज इतर सारा जहाँ।
बहारें जो तुम्हारे जीवन में है सबके नसीब में कहाँ ?
मेहरबान है शायद तुम पर,वक्त की बहारें
हमने भी बोल दिया ,
अम्मा बहारें तो चारों तरफ बिखरी पड़ी है
जो चाहिए ले लो , यह तो मन का भरम है
जिसका मन सदा बहार हो उसे बहारों से क्या लेना ?
हमने भी अपने ज्ञान चक्षु खोल कर ज्ञान देना शुरू कर दिया ,
दोस्त मेरे -----
तमाम बहारों की मंडी सजी है इस दुनिया में ,
तुम्हारे मन की असली बहार छीनने को
आओ चुन लो '''------------
सब्जों की लहलाहट, खेतो बाग़ात की बहारें ,
तूफ़ान , ओले बारिश
कुदरत के कहर लील देते है यही बहारें
हरे भरे बाग़ फल फूलों से लदे यह खेत
आँधिया उडा देती हैं किसान की यही बहारें
बूंदों की झमझमा झम फुहारों की बहारें ,
बहा ले जाती है खेत खलिआनो और गरीब के
आशिआनो से तमाम जिंदगी की बहारें
किस किस का जिक्र करें किस किस का फ़िक्र
यहाँ हर बात के तमाशे , हर घाट की बहारें ,
टेलीविज़न पर परोसे गए विज्ञापन की बहारें ,
बेसिर पैर , झूठे सच्चे समाचारों की बहारें ,
इन बहारों की बाढ़ में कहीं दूर डूब गई हैं
मेरे सच्चे दिल की बहारें
सच्ची बहारें तो कुदरत के तोफे है ,
इंसानी बहारों के वजूद का क्या ?
आज हैं कल नहीं , कुदरत का विधान है
इंसान को कर के बेदखल ,
इंसान को ही कुछ देने को
बहारें फिर भी आती है.
बहारें हमेशा आएँगी